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धर्मेंद्र को अठन्नी के सिक्के दिया करते थे जगदीप जी, याद करते हुए कहा- ‘ऐसा लग रहा है अंदर कुछ टूट गया है’

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दैनिक भास्कर

Jul 10, 2020, 05:00 AM IST

अमित कर्ण.

बॉलीवुड के दिग्गज कॉमेडियन जगदीप जी का निधन 8 जुलाई को हुआ। उनके गुजर जाने से पूरे बॉलीवुड में शोक की लहर है। इसी बीच अपने उनके करीबी दोस्त धर्मेंद्र ने भास्कर से बातचीतमें अपनी दोस्ती के कुछ दिलचस्प किस्से शेयर किए हैं।

हम दोनों ने साथ में बहुत बड़े-बड़े प्रोजेक्ट किए थे। प्रतिज्ञा, शोले, सुरमा भोपाली। उनके साथ कई खूबसूरत यादें रही हैं। बहुत जॉली किस्म के इंसान थे। बहुत बड़े फनकार भी थे वो। एक्टर तो गजब के  थे ही। उन्होंने कहां से कहां तक की तरक्की की, यह पूरा जमाना जानता है। बिमल रॉय की फिल्मों से शुरू हुए थे। बतौर हीरो भी उन्होंने कई फिल्में की। कॉमेडियन तो वो लाजवाब हुए ही। उनकी एक फिल्म ‘सूरमा भोपाली’ भी मैंने की थी। उसे उन्होंने डायरेक्ट किया था जिसमें मेरा डबल रोल था। मजा आया था वह करके मेरा क्या है? मुझे कोई प्यार मोहब्बत से मिले तो मैं उसका हो लेता हूं। जगदीप जी वैसे ही थे।

बहुत एफर्टलेस तरीके से कॉमेडी करते थे जगदीप

कॉमेडी सबसे मुश्किल काम है जिसे जगदीप बहुत एफर्टलेस तरीके से किया करते थे। आप किसी को उदास तो एक सेकंड में कर सकते हैं, किसी के जज्बात से पल भर में खेल सकते हैं, मगर दुखी को हंसा देना बहुत बड़ी बात होती है। रोते हुए को हंसा देना बहुत बड़ी बात होती है।

कुछ महीनों पहले तक भी हुई मुलाकात

बीते महीनों में भी कई दफा मिले वो मुझे। उन्होंने एक बार मुझे कुछ पुराने सिक्के दिए थे। उन्हें पता था कि मुझे पुराने सिक्कों को जमा करने का बहुत शौक है। अठन्नी, चवन्नी जो कभी गुजरे दौर में हम लोग इस्तेमाल किया करते थे। हम लोगों के बचपन में तो चवन्नी की बढ़ी कीमत होती थी।  तो जगदीप ने खासतौर पर अठन्निया लाकर मुझे दीं। कहा कि पाजी मुझे मालूम है, आपको पुराने सिक्कों का बहुत शौक है। मेरे पास कुछ पड़े हैं प्लीज आप उन्हें ले लीजिए। इस किस्म की फीलिंग एक दूसरे के लिए हम दोनों में थी।’

उनके घर काफी आना-जाना था

1988 में सुरमा भोपाली फिल्म में मैं बतौर धर्मेंद्र ही किरदार प्ले कर रहा था। उस किरदार को अपने करियर में डायरेक्टर बनना होता है और फिर कहानी आगे बढ़ती है। डबिंग करने में भी जगदीप मेरे साथ सनी सुपर साउंड में आया करते थे। बड़े मजे में फिल्म बनी थी। बहुत अच्छे तरीके से। जब उनकी मां बीमार थीं तो मैं उनसे मिलने भी जाया करता था। जब उनके बच्चे छोटे थे तब से उनके घर आना जाना था।

मैं जगदीप को बहुत पहले से जानता था। शुरुआत के दिनों में ही बहुत अच्छे दोस्त हो गए थे। जगदीप को खाने पीने का बहुत शौक था। खुद भी बहुत अच्छा बहुत कुछ बना लेते थे। प्रतिज्ञा में उनका बहुत अच्छा रोल था। अपना फ्लेवर हर रोल में ऐड करते ही थे। एक सच्चे कॉमेडियन की यह पहचान होती है। उस वजह से उन्होंने जो भी रोल किए, वह सोने पर सुहागा होते रहे। वह भी अपने कैरेक्टर में रहते हुए।

सूरमा भोपाली का किरदार अमर हैः

‘इश्क पर जोर नहीं’ में वो एक बंगाली इंसान की भूमिका में थे। बिल्कुल बांग्ला टोन में उन्होंने हिंदी बोली थी। शोले के सूरमा भोपाली किरदार से तो वह अमर हो गए। जब तक फिल्म इंडस्ट्री रहेगी, लोग फिल्में देखते रहेंगे और सूरमा भोपाली को भी याद रखेंगे। कभी भूल नहीं सकते उसको।  

उनकी टाइमिंग कमाल की रहती थी

वह जो सीन है, जहां पर सूरमा भोपाली के कैरेक्टर में वह लंबी लंबी फेंकते हुए कह रहे थे, ‘वह जो लंबू निकला और मैंने जो स्टिक घुमाई,’ उसमें उनकी टाइमिंग कमाल की थी। बल्कि तकरीबन हर सीन में वह टाइमिंग से बहुत अच्छा खेलते रहे। कॉमेडी में टाइम मिस हो जाए तो फिर सीन अच्छा नहीं बन पाता है। इसमें एक फेंकता है तो दूसरा लपेटता है। इस तरह की आपसी इक्वेशन होनी चाहिए। कॉमेडियन होना बहुत बड़ा गुण है। 

फ्री टाइम में एक दूसरे की खिंचाई करते थे

शूट के अलावा जो खाली वक्त हुआ करता था तो उसमें भी हम लोग आपस में हल्के-फुल्के टॉपिक पर ही बातें किया करते थे। कोई सीरियस मुद्दा नहीं लेकर बैठते थे, ज्यादातर तो गप्पे हुआ करती थी। मजे लिया करते थे हम लोग एक दूसरे की। कभी दूसरे की टांग खिंचाई किया करते थे। वह लम्हे बड़े मजेदार गुजरे हैं सारे।

शोले में सुरमा भोपाली किरदार इतना लोकप्रिय हुआ था कि उसी पर उन्होंने उसी नाम से फिल्म बना डाली। नेचुरली शोले का आईडिया तो खैर जावेद अख्तर का था। दरअसल, जावेद अख्तर ने जितने भी किरदार शोले में लिखे, उनमें से कई उन्होंने असल जीवन में देख रखे थे। ऐसे में जब वो राइटिंग कर रहे थे  तो कहीं ना कहीं वह किरदार भी और उनकी खूबियां- खामियां राइटिंग में आई।

उनके जाने से मेरे भीतर कुछ टूट सा गया है

उन्होंने अपना नाम बदलकर जगदीप क्यों रखा, इसका मुझे इल्म नहीं। ना मैंने कभी वह सब चीजें उनसे पूछीं। हमारे जमाने में तो नाम जो है वो महीने या हफ्ते के दिन पर भी रख दिए जाते थे। जैसे किसी की पैदाइश मंगल को हुई, इसलिए उसका नाम मंगल रख दिया जाता था। उसमें साल और तारीख नहीं रखी जाती थी। ताकि हमेशा उसकी उम्र पता ना चल सके। वह जवान रहे, जिंदा रहे। बहरहाल इतने साल हम दोनों साथ रहे। अब ऐसा लग रहा है कि कुछ टूट गया है मेरे भीतर से। उन दिनों में तौर-तरीके कुछ और थे। एक मां-बहन की इज्जत, लोक लिहाज हुआ करते थे।



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